scorecardresearch
 
Advertisement
हुए मर के हम जो रुस्वा | स्टोरीबॉक्स | EP 29

हुए मर के हम जो रुस्वा | स्टोरीबॉक्स | EP 29

इस सनीचर की शाम मिर्ज़ा मेरे साथ मेवा-शाह कब्रिस्तान में थे। कब्रिस्तान में सभी रंजीदा थे सिवाए मुर्दे के। मिर्ज़ा टहलने लगे और वहां की कब्रों को देखने लगे जिन पर मौत की तारीख, ओहदे और वल्दियत वगैरह लिखी थी। मैंने पूछा ये कब्र के पत्थर हैं कि नौकरी की दरख़्वास्त। किसी ने कहा कि मरहूम इतने ने इतनी लम्बी उम्र पाई कि उनके क़रीबी रिश्तेदार दस-पंद्रह साल से उनकी इंशोरेंस पालिसी की उम्मीद में जी रहे थे। हालांकि उन उम्मीदवारों में ज़्यादातर को मरहूम ख़ुद अपने हाथ से मिट्टी दे चुके थे। लेकिन नेक इतने थे कि मरहूम ने पाँच साल पहले दोनों बीवियों को अपने तीसरे सेहरे की बहारें दिखाई थी और ये उनके मरने के नहीं, डूब मरने के दिन थे। सुनिए मुश्ताक़ अहमद युसुफ़ी के एक मज़मून का हिस्सा 'हुए मर के हम जो रुस्वा' का रेडियो एडैपटेशन स्टोरीबॉक्स में, जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से. 

Advertisement
Listen and follow स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी