भाषा सिर्फ़ शब्दों का सेट नहीं, बल्कि एक जीती-जागती दुनिया होती है, जो समय के साथ विकसित होती रहती है. मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो ने कहा था कि ज़बान बनाई नहीं जाती, वो ख़ुद बनती है. इन्हीं पहलुओं पर बात करने के लिए आज हमारे साथ हैं लिंग्विस्ट, लेखक और शोधकर्ता पेगी मोहन, अपनी किताबों Wanderers, Kings, Merchants और Father Tongue, Motherland में उन्होंने दिखाया है कि भारतीय भाषाएँ सिर्फ़ संस्कृत या फ़ारसी का विस्तार नहीं, बल्कि एक गहरे और मिश्रित भाषा तंत्र का हिस्सा हैं. उनसे जानते हैं—भाषाओं का असली DNA क्या है? माइग्रेशन और जेंडर का भाषा निर्माण पर क्या असर होता है? क्या हिंदी, बंगाली, तमिल जैसी भाषाएँ किसी प्राचीन ज़बान का नया रूप हैं? और भाषा कब ‘मदर टंग’ बनती है, कब इसमें गालियां जुड़ जाती हैं, सुनिए 'पढ़ाकू नितिन' में नितिन ठाकुर के साथ.
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सोना ख़रीदकर घर में रखना क्यों घाटे का सौदा है?: पढ़ाकू नितिन, Ep 180