उनकी हर बात 'नहीं' से शुरु होती थी. मान लीजिए आप उनसे कहें कि आज बड़ी सर्दी है, वो कहेंगे "नहीं, कल ज़्यादा पड़ेगी" आप कहिए, "मैं कल सड़क पर फिसल कर गिर गया" वो फौरन कहेंगे, "नहीं, ये तो कुछ भी नहीं, मैं तो एक दफ़ा ऐसा फिसला था कि क्या बताऊं, हुआ यूं कि..." और फिर किस्सा शुरु कर देंगे. हमेशा चूड़ीदार पैजामा पहनते थे औक मूंछों पर ताव देते थे. पैजामा के इज़ारबंद में चाबियों का गुच्छा बंधा रहता था. उस गुच्छे में पुराने-पुराने ताले की चाबियां थी जिनके ताले खो चुके थे - वो कोई और नहीं बशारत अली ख़ान यानि मेरे ससुर साहब थे. सुनिए पूरा किस्सा स्टोरीबॉक्स में