पुराने लखनऊ में वो करीब सौ साल पुरानी क्लीनिक थी जिसमें डाकटर साहब एक बड़ी सी मेज़ के पीछे बैठते थे। पीछे अलमारी में सैकड़ों दवाएं सजी रहती थीं जिसे शायद अर्से से खोला नहीं गया था। डॉकटर खान के हाथों में बड़ी शिफ़ा थी। नाक कान गले के डॉक्टर थे और दो खुराक में पुराने से पुराना मर्ज़ ठीक हो जाता था। बस एक दिक्कत थी और वो ये कि 'डाकटर साहब' डांटते बहुत थे। एक बार पर्चे पर लिखी दवा समझाते थे, आप समझ गए तो ठीक और नहीं समझे तो दोबारा पूछने पर डांट पड़ती थी। एक बार मेरा भी तजुर्बा हुआ उनसे दवा लेने का। मैं पहुंचा तो देखा देखा उम्रदराज़ डॉक्टर साहब अपनी सीट पर बैठे हैं लेकिन कौन जानता था कि वो दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा - सुनिए स्टोरीबॉक्स में 'डाकटर साहब' जमशेद कमर सिद्दीक़ी से.