ठाकुर साहब ने उसे कभी भी अपने सगे बेटे से कम नहीं माना था और इसीलिए जब सगे बेटे की शादी हुई तो शादी की सारी खरीद फ़रोख्त की ज़िम्मेदारी उसे ही दे दी. लाखों का लेन देन उसी के हाथों हो रहा था यहां तक कि शादी के ज़ेवर भी उसी ने ख़रीदे. कभी उसकी नीयत नहीं ख़राब हुई लेकिन एक रोज़ रात के वक्त उसके ज़मीर ने करवट बदली और उसने ज़ेवरों से भरे उसे डिब्बे को चुराने का फैसला कर लिया. सुनिए मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी 'ज़ेवर का डिब्बा' स्टोरीबॉक्स में जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से