मिर्ज़ा साहब ने कहा, "अरे भई मुझे पैसे नहीं चाहिए, पर तुम ज़बरदस्ती देना चाहो तो जो जी करे दे दो" मैंने चालीस रुपए उनकी जेब में डाल दिए। अगली सुबह नौकर ने बताया कि साइकिल आ गयी है। मैं मारे खुशी के बरामदे में पहुंचा तो देखा कि एक आजीब सी चीज़ सामने खड़ी है। पास जाकर देखा तो ख़ैर से, साइकिल ही थी लेकिन यक़ीनन पहिया और चर्खा की ईजाद से पहले की साइकिल लग रही थी - सुनिए पतरस बुख़ारी के मज़मून का एक हिस्सा - मिर्ज़ा की पुरानी साइकिल। स्टोरीबॉक्स में जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से